सुख की शुरुआत भी दुःख से है, और अंत भी दुःख में। तुम अगर दुःखी नहीं हो, तो तुम सुखी नहीं हो सकते। और जितना गहरा तुम्हारा दुःख है, सुखी होने की तुम्हारी सम्भावना उतनी ही बढ़ गयी है। यह दोनों एक ही आयाम के हैं, एक दूसरे पर निर्भर करता है। मन जिस ओर भागने के लिए संस्कारित हो जाता है उसको हम सुख कहने लगते हैं और उसकी विपरीत दिशा को दुःख।
अपने-आप में न सुख कुछ है न दुःख। सारा खेल मन के संस्कारों का है।
महत्वपूर्ण है कुछ और जानना, वो है आनंद, जहाँ सुख की उत्तेजना से मुक्ति है।
सुख हमेशा एक ख़ाहिश है, एक मांग है, ‘मुझे सुखी होना है’ आनंद है, इस मांग से ही मुक्त हो जाना कि मुझे सुखी होना है। आनंद है, बिलकुल निरभार हो जाना। कुछ चाहिए नहीं, स्वयं को दिलासा देने के लिए, कुछ चाहिए नहीं, स्वयं को पूरा करने के लिए। कुछ चाहिए नहीं, अपने से जोड़ने के लिए। जो ही स्थिति है, उसी में हम साबुत हैं, सलामत हैं, पूर्ण हैं – ये आनंद है।
सुख चीज़ मांगता है, घटना मांगता है; आनंद नहीं मांगता, बेशर्त होता है। और सुख धोखा देता है, लगातार नहीं टिक सकता। और आनंद चूंकि बेशर्त होता है, इसीलिए लगातार हो सकता है।
तुम्हारा स्वभाव आनंद है, पर आपके मन को पोषण मिलता है सुख से, सुख-दुख के खेल से ही मन जीवित रहता है, और आनंद की प्यास को तुम सुख से बुझाने की कोशिश करते हो और क्योंकि सुख सीमित है तो वो उस प्यास को बुझाने में भी सक्षम नहीं है और यहाँ से शुरू होता है दुःख का खेल।
उदारण के तौर पर सोचो कि तुम्हारा बच्चा मिल नहीं रहा दो घण्टे से, तुम्हारे दिमाग में तूफ़ान चल रहा है, तुम बौरा गए, पगला गए, दो घंटे से कोई खबर नहीं आयी। और फिर वो तुम्हें अचानक मिल जाता है, तुम्हारे सुख का पारावार नहीं रहेगा। दुःख जितना गहरा, सुख उतन ही ऊँचा।